(संजीव परसाई) एक समय था जब आप घर से किराने का और जरूरत का
सामान लेने निकलते थे तब हमारे हाथ में सामान की एक सूची होती थी। प्रायः सिर्फ
वही सामान हमारे झोले में होता था। लेकिन आज हम घर से शापिंग करने के बहाने निकलते
हैं तो घर लौटने पर हमारे पास होता है, कुछ जरूरी और बहुत सारा गैर जरूरी सामान। बहुत
सोचते हैं कि यह सामान आखिर हमारे घर कैसे आ गया। लेकिन हमारे पास सिवाय खुद को
कोसने और भविष्य में ध्यान रखने की कसम खाने के सिवा कुछ नहीं होता।
आखिर यह होता कैसे है? ऐसा क्यों होता है कि हम गैर
जरूरी सामान भी खुशी-खुशी मनचाही कीमत देकर घर लाते हैं। बाजारवाद के इस दौर में
कई बार हमें इस समस्या से दो चार होना पड़ता है। असल में यह बाजार है जो हमें दबाव
में लेकर अपनी चाल चलवाता है। आंखें बंद करके सोचिये कि आपके पिता या दादाजी के
जमाने में हमारे घरों में एक रेडियो हुआ करता था, जो प्रायः अगली पीढ़ी को चालू हालत में प्राप्त
होता था। वह हमारी पैतृक संपत्ति होती थी, जिसकी कीमत बहुत अधिक नहीं थी लेकिन वह हमारी
भावनाओं से जुड़ी थी। लेकिन बदलते हालातों में देखिये कि गरीब से गरीब आदमी भी
बहुत हुआ तो छः महिने या साल भर में अपना मोबाइल हैण्ड सैट बदल ही लेता है।
क्योंकि यह आज हमारी संपत्ति नहीं है, हम हर इलेक्ट्रानिक सामग्री को यूज एण्ड थ्रो
वाले अंदाज में ही लेते हैं। ये तो मात्र उदाहरण है लेकिन हमारे रोजमर्रा के जीवन
में ऐसी कई चीजें हैं जिनको हम तबज्जो नहीं देते हैं। ऐसा नहीं है कि हमें अपने
खून पसीने की कमाई की फिक्र नहीं है या बाजार में हमें घटिया सामान मिल रहा है जो
एक समय के बाद हमें मजबूरन बदलना पड़ रहा हो, बल्कि हम खुद पूरे होशो हवाश में सामान को
बदलने या फेंकने को तत्पर हैं।
हर सभ्यता और संस्कृति के विकास या विनाश में
बाजार की एक महत्वपूर्ण भूमिका होती है। बाजार जहां एक ओर हमें नयी नयी सामग्री और
सुविधाओं के लिये प्रेरित करता है वहीं दूसरी ओर वह हमारी आकांक्षाओं और अपेक्षाओं
को पंख देता है। हम बाजार की असीम संभावनाओं के साथ उड़ना चाहते हैं, बहुत ऊँचा- अपनी सामर्थ्य के
भी आगे। भयानक आर्थिक मंदी के दौर से दुनिया गुजरी तो कई देश आज तक उबर नहीं सके।
लेकिन भारत पर इसका सीमित असर हुआ। तमाम विरोधाभासों के बीच भारत में मरने जीने की
स्थिति नहीं बनी। इस अवस्था से भारत को निकाला भारत के मध्यम वर्ग ने जो कि अपने
एक संयमित और सीमित बाजारू प्रवृत्ति के चलते अपने जीवन यापन के संसाधनों को खर्च
करता है। इस वर्ग ने हमेशा अपनी कमाई का एक बड़ा हिस्सा अपने पास बचाये रखा। इसी
बचत की प्रवृत्ति ने उसे विश्वव्यापी आर्थिक मंदी से निकलने में मदद की। कोई कुछ
भी कहे लेकिन सरकार को अपने देश के मध्यम वर्ग पर पूरा भरोसा था कि वह हालात
बिगड़ने नहीं देगा।
बाजार ने जो दिया है उससे इंकार नहीं किया जा
सकता है लेकिन बदलते आर्थिक सामाजिक हालातों में बाजार अब बेकाबू हो चला है। यों
कहा जाये कि अब बाजार इस हालत में पहुंच चुका है कि सरकारें भी इस पर काबू नहीं कर
सकतीं। इस बेलगाम बाजारवाद में सीमित आय वर्ग के हालात बदइंतजामी के शिकार होकर
बिखरने की स्थिति में आ रहे हैं। सबसे अधिक बुरे हालात भारत के मध्यम वर्ग के होने
लगे हैं क्योंकि वही वर्ग आज बाजार के निशाने पर है। कमाई के सीमित संसाधन लेकिन
खर्च होने के लाखों तरीके, आखिर कैसे इसे रोकें इसे।
दरअसल बाजार अब मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने पर आमादा है, अमुक चीजें खरीदो नहीं तो
आपको जीने का हक ही नहीं है या अमुक चीज नहीं होने पर आपका तो जीना ही बेकार है।
कोई नहीं जानता कब और कैसे इस पर काबू पाया जा सकेगा।
बाजार को दो चीजें चलाती हैं एक तो भय दूसरा
लालच। लालच वह कि एक खरीदोगे तो एक मुफ्त मिलेगा। भय यह कि यह आफ़र मात्र एक हफ्ते
के लिये है। हालात को बदलने में कितना समय
लगेगा यह तो नहीं कहा जा सकता है। लेकिन आगे हालात और भी बेकाबू हो सकते हैं इससे
किसी का इंकार नहीं। अब तो बस भय का ही सहारा है, शायद यह भय ही बचायेगा हमें बाजार की गर्त में
जाने से, मध्यम वर्ग की बर्बादी का और मौत का भय।
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